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धर्मशास्त्र || dharmshastra

 धर्मशास्त्र || भारतीय चिंतन। ||  Dharmshastra||👉


 धर्मशास्त्र भारतीय चिंतन में महत्वपूर्ण स्थान रखता है धर्मशास्त्र संबंधित संपूर्ण ज्ञान मनुष्य के कल्याण के लिए ब्रह्मा ने मनु को दिया धर्म को राज्य से प्राथमिक माना गया है 

  धर्मशास्त्र धर्म शब्द की उत्पत्ति ध्र धातु से हुई है जिसका अर्थ है   - धारण करना अर्थात वह गुण जिसके आधार पर प्राणी जगत अपने वास्तविक स्वरूप को धारण करने में समर्थ हो सके 

मानव धर्म की व्याख्या हेतु व प्राणी मात्र को उनके विभिन्न धर्म का बोध कराने हेतु ही धर्मशास्त्र का निर्माण हुआ है

https://kumaridolly.blogspot.com/2022/04/preamble-of-indian-constitution.html

धर्मशास्त्र और राज्य उत्पत्ति...

मानव धर्मशास्त्र में राज्य की उत्पत्ति के देवी सिद्धांत का वर्णन है मनु के अनुसार संसार में राज्य के न होने पर बलवानों की दर से प्राजों में व्याप्त और सुरक्षा के कारण संपूर्ण संसार की रक्षा के लिए ईश्वर ने राजा की सृष्टि की राजा को ईश्वर ने इंद्र वायु एवं सूर्य अग्नि वरुण चंद्रमा व कुबेर का सारभूत अंश लेकर बनाया है राजा का प्रभाव अक्षुण्य है




साधारण मनुष्य मानकर राजा के पद पर प्रतिष्ठित बालक का भी अपमान नहीं करना चाहिए क्योंकि वह भी मनुष्य के रूप में स्थित देवी शक्ति का ही प्रतिनिधि है


मनु ने राजा की दिव्यता को शक्ति के बजाय कर्तव्य के विभिन्न पक्षों से जोड़ा है इसे  शासक के लोक कल्याणकारी दायित्व की पवित्रता के रूप में परिभाषित कर दिया है


•धर्मशास्त्र में दंड नीति


मनु ने धर्म के 10 लक्षण बताए हैं 

धैर्य ,

क्षमता,  

संयम,  

अस्तेय , 

शौच, 

इंद्रिय निग्रह , 

विवेकशीलता , 

विद्या सत्य , 

वाच्य व अक्रोध। 


धर्मशास्त्र का उद्देश्य मानव के विभिन्न धर्म की व्याख्या व शांति का पत्र प्रदर्शन है 

मनुष्य की असुरिया प्रवृत्ति का दमन करने हेतु दंड नीति की आवश्यकता हुई दंड का प्रयोग सम्यक होना चाहिए दंड का सृजन ईश्वर ने स्वयं किया है दंड का उद्देश्य धर्म की रक्षा है








मनु ने चार प्रकार के डंडों का उल्लेख किया है।  

1. वाक्

2. धिग 

3. अर्थ 

4. भौतिक 



राज्य का सप्तांग सिद्धांत

धर्मशास्त्र में राज्य की सहयोग प्रकृति की कल्पना की गई है जिस तरह से मनुष्य के शरीर के विभिन्न भाग महत्वपूर्ण है इस तरह राज्य में विभिन्न अंगों का महत्व होता है राज्य के 7 तत्व या अंग है इन सभी का महत्व क्रमिकता में है किसी भी अंगों को नकारा नहीं जा सकता यह 7  तत्व है

  • स्वामी या राजा
  •  मंत्री या अमात्य
  • पुर  या दुर्ग 
  •  राष्ट्र
  •  कोष 
  • दंड 
  • मित्र



मनु के अनुसार यह सभी तत्व परस्पर निर्भर हैं इनमें से प्रत्येक तत्व दूसरे पर निर्भर है प्रत्येक राज्य के लिए अत्यावश्यक है मनु ने एक कल्याणकारी राज्य का समर्थन किया तथा  अर्थव्यवस्था पर राज्य के नियंत्रण की बात की जिससे संपत्ति का प्रयोग राज्य के हित में हो सके

धर्मशास्त्र के सामाजिक विचार
 
धर्मशास्त्र में तत्कालीन वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया गया है राजा का मूल उद्देश्य वर्ण व्यवस्था को बनाए रखना था राजा से अपेक्षा की गई कि वह प्रत्येक वार्ड के सदस्य द्वारा उसके निर्धारित कर्तव्य के पालन को सुनिश्चित करें वर्णन संकटता से समाज की रक्षा करना राजा का कर्तव्य था।

वर्ण व्यवस्था के अलावा प्राचीन समाज में कर्तव्य निर्धारित करने हेतु आश्रम व्यवस्था का निर्माण भी किया गया क्योंकि यह व्यक्ति की  सामूहिक व्यवहार को क्या समन्वित करने में सहायक थी आश्रम व्यवस्था द्वारा व्यक्ति के व्यक्तिगत आचरण पर नियंत्रण किया जाता है

प्रकार के आश्रम की व्यवस्था विद्यमान थी


1. ब्रह्मचर्य आश्रम

 विद्या अर्जन करना व ब्रह्मचर्य का पालन करना
 25 वर्ष तक

2. गृहस्थ आश्रम 

परिवार का पालन पोषण करना 
25 से 50 वर्ष तक

3. वानप्रस्थ आश्रम 

घर में रहते हुए स्वयं को सांसारिक कार्यों से पृथक करना 
50 से 75 वर्ष तक

4. सन्यास आश्रम

 वन में जाकर तपस्या करना या ईश्वर का जाप करना 
 75 से 100 वर्ष तक



व्यक्ति का उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति थी चाहे वह राजा हो या सामान्य व्यक्ति धर्म अनुकूल आचरण के द्वारा व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है तथा जो राजा अपने राजधर्म का निर्वाह करता है उसे भी मोक्ष की प्राप्ति होती है धर्म के अनुकूल आचरण पर बोल दिया गया है

∆  मनु ने धर्म के पांच स्रोत बताए हैं
  1. वेद 
  2. स्मृति 
  3. सज्जनों का आचरण
  4. अंतकरण तथा राजाग्या 







धर्मशास्त्र व विदेश नीति



मनु ने विदेश नीति के सैद्धांतिक पक्षों में मंडल सिद्धांत , सम्मिलित किया है मंडल सिद्धांत अंतर राज्य संबंधों के सुचारू संचालन के लिए राज्यों के वर्गीकरण पर बोल देता है यह राष्ट्रों के मध्य शक्ति संतुलन का व्यावहारिक स्वरूप माना जा सकता है

किसी राज्य द्वारा दूसरे राज्य के प्रति किसी विशिष्ट स्थिति में अपनाई जा सकने वाली नीतियां धर्मशास्त्र में छह बताई गई है
  1. संधि 
  2. विग्रह 
  3. यान 
  4. आसन
  5. द्विवेदी भाव



 कर व्यवस्था संबंधी नियम




मनु ने राजा द्वारा उचित मात्रा में कोष संख्या की आवश्यकता पर बोल दिया है धर्मशास्त्र में कारो पर संबंधी निम्न नियम बताए गए हैं

राजा द्वारा प्रजा से न्यायपूर्ण तरीके से और कर के लिए नियुक्त अधिकारी के माध्यम से वार्षिक कर प्राप्त किया जाना चाहिए


व्यापारियों से खरीद बिक्री मार्ग वह लाभ आदि पर विचार विमर्श के माध्यम से ही कार्य की दर निर्धारित करनी चाहिए

राजा को करके रूप में पशु स्वर्ण का  पचासवां भाग व  धान्य का छठा , आठवां वह 12वां भाग ग्रहण करना चाहिए

वृक्ष मास शहद घी गढ़ औषधि फूल फल पत्ता शाक घास मिट्टी से निर्मित बर्तन व पत्थर से बनी वस्तु का छठा भाग कर के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए

राजा द्वारा आपातकाल में भी विधि वेदपाठी  ब्राह्मणों से कर नहीं लिया जाना चाहिए

अधिक लाभ के लालच में प्रजा पर किसी भी परिस्थिति में कर का अधिक भार  नहीं डाला जाना चाहिए


आलोचना

मनु द्वारा समाज का वर्णन में विभाजन तार्किक व उचित प्रतीत नहीं होता है


 मनु ने राजा को ईश्वर से भी सर्वोच्च सत्ता के रूप में चित्रित किया यह राजा निरंकुश वह अधिनायक वादी प्रतीत होता है क्योंकि उसे पर किसी भी प्रकार के प्रबंध नहीं है 

मनु द्वारा वर्णित राज के देवी उत्पत्ति का सिद्धांत तार्किक प्रतीत नहीं होता

मनु ने व्यक्तियों के कर्तव्य व धर्म पर बोल दिया है स्वतंत्रता व अधिकारों पर नहीं

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